दैनिक जागरण, (समस्त संस्करण) 8 जून '21, पृष्ठ 10, सप्तरंग : अन्तस और अध्यात्म का स्तंभ, वट सावित्री पर्व पर 'मनुष्य का रक्षक है वट-वृक्ष' शीर्षक आलेख, लेखक : सलिल पांडेय, मिर्जापुर -- मनुष्य का रक्षक है वट-वृक्ष -- ------- --- रामायण के अरण्यकांड में प्रसंग आता है कि जब जंगल में माता सीता का अपहरण हो गया था तब भगवान श्रीराम पेड़-पौधों से सीताजी का पता पूछते हुए 'हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी' कह कर वृक्षों से मदद मांगते हैं। वृक्षों पर रहने वाले पक्षियों ने उनकी मदद की थी। यहां तक कि जटायु तो रावण से लड़ गया था। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार वृक्षों का भी परिवार है। वृक्ष इतने कृपालु हैं कि मानव को क्षति पहुंचाने वाले विषाणुओं (वायरस) को खुद के नियंत्रण में रखते हैं ताकि वे मानव-समूह में पहुंचकर मनुष्य जीवन को क्षति न पहुंचा सके। इसका निष्कर्ष आज के संदर्भों में व्याख्यायित किया जाए तो लगता है कि किसी आकस्मिक महामारी जैसी निशाचरी प्रवृत्ति के चलते दुःख और शोक का वातावरण उत्पन्न हो जाए तो उसका उपाय प्रकृति और वनस्पतियों की ओर लौटना ही है। वृक्षों पर बसेरा बनाने वाले पक्षी शोकग्रस्त राम की मदद करते हैं। पूरा अरण्य कांड वाल्मीकि का हो या गोस्वामी तुलसीदास का, दोनों में प्रकृति की महत्ता का उल्लेख करते हुए वृक्षों को वंश-रक्षक बताया है। आरण्यक संस्कृति के उपासक ऋषियों-मुनियों ने प्रकृति को देवी-देवता की श्रेणी में यूं नहीं रखा । चूंकि प्रकृति से सिर्फ मनुष्य को ही नहीं बल्कि हर पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभीको जीवन मिलता है, इसलिए इनकी रक्षा करना पुनीत कर्तव्य बताया गया है । इसी क्रम में घोर ग्रीष्म ऋतु में वृक्षों की देखभाल के इरादे से धार्मिक कार्यक्रमों एवं पूजन के विधान किए गए । ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि से अमावस्या तक उत्तर भारत में वट सावित्री का व्रत और पूजा आस्था के साथ सौभाग्यवती महिलाएं करती हैं । वट प्रजाति के वृक्षों में बरगद के साथ पीपल, गूलर, पाकर, ढेसूर पेड़ शामिल है । अपनी टहनियों से स्वयं को वेष्टित (स्वयं को लपेट लेना) करने के कारण ये वटवृक्ष हैं । इसमें सबसे अधिक वेष्टन करने वाला वृक्ष बरगद ही है । ढेसूर तो चट्टानी पहाड़ों के पत्थरो पर उगता हैं, पीपल अहर्निश आक्सीजन देता है लेकिन बरगद तो धरती को आग का गोला होने से बचाता है । केवल भारत में नहीं बल्कि कई विकसित देशों में इन पेड़ों का नामकरण धर्म के साथ जोड़कर फाइबर रिलीजियस, फाइकस ग्लूमेरेटियस आदि से किया गया है । अरब देशों में भी भारत में पूजे जाने वाले अनेक वृक्षों को महत्त्व दिया जाता है । इस तरह के वृक्षों को आजाद-ए- दरख्त-ए-हिन्द कहा जाता है । वट-सावित्री व्रत के दौरान बरगद की विधिवत पूजा की जाती है । वटसावित्री व्रत की मान्यता तो सत्ययुग में पतिव्रता सावित्री द्वारा अपने पति को कठोर तपस्या के बल पर यमराज के चन्गुल से मुक्त कराने से जुडी है लेकिन त्रेता में श्रीराम एवं द्वापर में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन पेड़ों की पूजा की । वनस्पति विज्ञान की रिपोर्ट के अनुसार यदि बरगद के वृक्ष न हो तो ग्रीष्म ऋतु में धरती पर जीवन नष्ट हो जाए। मानव सहित सभी जीव जिन्दा नहीं रह सकते । धरती अग्निकुंड बन जाएगी और सब उसी में झुलस जाएंगे । वनस्पति-विज्ञान की रिसर्च के अनुसार सूर्य की ऊष्मा का 27 प्रतिशत हिस्सा बरगद का पेड़ अवशोषित कर पुनः आकाश में नमी प्रदान कर लौटाता है जिससे बादल बनता है और वर्षा होती है । बरगद की इन्हीं विशेषताओं के चलते त्रेता युग में वनवास पर निकले भगवान श्रीराम जब भरद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुचने के एक दिन पूर्व रात्रि-विश्राम के लिए रुकते हैं तब लक्ष्मणजी वट वृक्ष के नीचे ही विश्राम की व्यवस्था करते हैं । दूसरे दिन प्रातः भरद्वाज ऋषि भी अपने आश्रम ले जाते हैं और जब वहां से चित्रकूट की तैयारी करते हैं तो ऋषि ने यमुना की पूजा के साथ बरगद के पेड़ की पूजा कर उससे आशीर्वाद लेने का उपदेश दिया । उस श्यामवट से जंगल के प्रतिकूल आघातों से रक्षा की प्रार्थना सीता करती हैं । आस्था के इस वृक्ष को मानव-जीवन का संरक्षक इसलिए भी माना जाता है कि इस पेड़ की संरचना बिलकुल जीवधारियों जैसी है । मनुष्य के मष्तिष्क (ब्रेन) से निकलने वाले नर्वस सिस्टम (तन्त्रिका प्रणाली) की तरह इसकी जटाएं ऊपर से नीचे आती हैं और अपनी जड़ों, तना को ताकत देते हुए यह पेड़ लम्बे दिनों तक छाया देता है । शरीर में भी मष्तिष्क से मेरुदण्ड (स्पाइनल कॉर्ड) के सहारे मेरुरज (कैनियल नर्वस) बरगद की जटाओं (टहनियों और वटोहों) की तरह नीचे की ओर आती हैं । जिसमें कुल 64 नर्व्स शरीर को स्वस्थ बनाने की भूमिका अदा करते हैं । इसमें सर्वाइकल, डारसल, लम्बर आदि हैं । नर्व्स और आर्टरी (नस-नाड़ियों) का काम रक्त सञ्चालन में प्रमुख है । इसमें कहीं भी विकृति या व्यवधान आने पर व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है । खुले स्थान पर इसके रोपण से इसका घेरा इतना बड़ा हो जाता है कि हजारो-हजार लोग इसके नीचे बैठ सकते हैं और इसकी ऊंचाई 100 फीट तक पहुंच जाती हैं । सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा के भी संकेत प्रकृति के सहारे अकाल मौत के मुंह जाने से बचना भी है । सावित्री मद्रदेश के राजा अश्वपति की कन्या थी । सन्तानविहीन राजा ने वेदमाता सावित्री जो सूर्य की पुत्री हैं कि कठोर तपस्या की जिनके वरदान से पैदा हुई कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया । सूर्य की वरेण्य किरणों के साथ योग के फलस्वरूप प्राप्त कन्या सावित्री के तेज के चलते कोई राजकुमार जब विवाह योग्य नहीं मिला तो पिता के आदेश पर सावित्री ने धर्मनिष्ठ एवं सत्यनिष्ठ शाल्वदेश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र से स्वयं वरण करने का निर्णय किया । विवाह की तैयारी शुरू हुई कि इसी बीच महर्षि नारद आ गए और सत्यवान की आयु एक साल ही बताया । पिता की चिंता देख सावित्री ने कहा कि एक पति को कन्यादान का संकल्प और किसी प्रकार के दान की घोषणा को स्वहित में बदलना शास्त्रविरुद्ध है । सावित्री की दृढ़ता पर विवाह सम्पन्न हो गया । नारद द्वारा बताए गए मृत्यु-दिवस के चार दिन पूर्व सावित्री को बुरा स्वप्न आता है । दूसरे दिन वह निराहार व्रत का संकल्प ले कर यज्ञ-समिधा के लिए पति के साथ जंगल में लकड़ी लेने खुद भी चलने के लिए कहती है जिस पर श्वसुर अनुमति यह कहते हुए देते हैं कि विवाह के बाद से सावित्री ने कभी कोई इच्छा नहीं प्रकट की । इसलिए यदि वह जंगल जाना चाहती है तो जा सकती है । इन दिनों द्युमत्सेन का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया था तथा खुद राजा की आँख की रौशनी गायब हो गयी थी । शास्त्रों में यज्ञ आदि के लिए यज्ञकर्ता को खुद लकड़ी लाना चाहिए । इस प्रकार सत्यवान को उस दिन लकड़ी काटते हुए अचानक सिर में तेज दर्द होने लगा । सावित्री पति का सिर गोद में लेकर बैठ गयी । तभी एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ और सत्यवान का अंगुष्ठ बराबर प्राण लेकर जाने लगा । सावित्री ने दिव्य पुरुष से पूछा- आप कौन है ? जवाब मिला- मैं यमराज । फिर सावित्री बोली- प्राण लेने तो आपके यमदूत आते हैं, आप स्वयं क्यों आए ? जिस पर वे बोले-सत्यवान एक धर्मनिष्ठ और सत्यनिष्ठ राजकुमार है, इसलिए मैं स्वयं आया, दूतों में सत्यवान को ले जाने की क्षमता नहीं है । इन्हीं लगातार संवादों के बीच पतिव्रता पर प्रकृति के संरक्षक बरगद की छत्रछाया का असर कि वह अपने श्वसुर द्युमत्सेन की नेत्रज्योति लौट जाए, खोया राज्यवापस हो जाए और स्वयं पुत्रवती बन जाए का वरदान यमराज से ले बैठी । क्रूर कार्य करने वाला सत्यनिष्ठ के आगे असन्तुलित हो जाता है । वरदान के बाद भी यमराज सत्यवान को यमलोक ले ही जा रहे थे और सावित्री उनका पीछा कर रही थी । यमराज ने कहा और भी जो वरदान मांगना हो, मांग लो लेकिन सत्यवान तो जीवित नहीं हो सकेगा । तब सावित्री ने कहा-पुत्रवती होने का आप वरदान दे चुके हैं । अंत में यमराज ने सत्यवान का प्राण वापस किया । इस कथानक से स्पष्ट है कि प्रकृति के साथ घुलमिल कर और तालमेल बनाकर जीवन जीने से तमाम तरह के शारीरिक रोग और मन की सदप्रवृतियां नष्ट नहीं होंगी । स्त्रियों की वट-वृक्ष की पूजा के कई अर्थ हैं । एक तो स्त्री रोगों के नियंत्रण में वट-वृक्ष सहायक होते हैं । वट वृक्ष की छाया, छाल, फल,पत्ते निःसन्तान महिलाओं में गर्भधारण की क्षमता प्रदान करता है । इसके अलावा अन्य स्त्री-रोगों में में भी इस वृक्ष का औषधीय महत्त्व है । इसके पत्तों से निकलने वाला दूध आर्थराइटिस दर्द को नियंत्रित करता है । मासिक अनियमितता में बरगद और पीपल की छाया और पत्तों का सेवन लाभकारी है । इसके अलावा यह पेड़ मानव-शरीर जैसा होने की वजह से सूर्यकिरणों से निकलने वाली लाभप्रद ऊर्जा को धरती की ओर प्रेषित करता है । पीपल की तरह यह भी कार्बन अधिक अवशोषित करता है । वनस्पति-विज्ञानी तो मानते हैं कि वृक्ष में जीवन है । वे मनुष्य की संवेदना को समझते हैं । वे मनुष्य की तरह प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त कर पाते । वट सावित्री की पूजा में पहले दिन बरगद पेड़ लगाने, दूसरे दिन इनकी रखवाली करने और तीसरे दिन पूजा करने का भी विधान है । ताकि ज्येष्ठ माह में रोपित पौधे वर्षा ऋतु में पूरी तरह बढ़ने लगे । ऋषियों ने वृक्ष, जल, नदी, सूर्य, चन्द्रमा, पर्वत, झरने सबको परिवार माना । यही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' चिंतन ऋषियों का है । - सलिल पाण्डेय, मिर्जापुर ।